साहित्य की बात हो या समाज की, वर्तमान परिदृश्य में जब हम नारी पर विमर्श करें तो इसका फलक बहुत व्यापक होना चाहिए। बेशक पूरी धरती। पूरी मानव सभ्यता। हम सिर्फ नारी को अलग करके नहीं देख सकते। वह तो देश दुनिया समाज की धुरी है क्योंकि सभ्यताएं स्त्री की कोख से जन्मती हैं. भारत जब परिवर्तन, अतिक्रमण और संघर्ष के दौर से गुजरा तो महिलाओं की स्थिति में विचलन आया. किन्तु यह विचलन उनकी सामाजिक और आर्थिक समानता में गिरावट के रूप में हुआ न कि उनकी उस शारीरिक विशिष्टता और श्रेष्ठता में जो प्रकृति ने उन्हें प्रदान की है. यही विशिष्टता ही स्त्री को पुरुषों से श्रेष्ठ बनाती है. नारी में असंतोष और उनकी स्थिति में विचलन दोनों अन्योन्याश्रित हैं. वास्तव में भारतीय परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की स्थिति में गिरावट वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप हुई विभिन्न संस्क्रीतियों के घालमेल का परिणाम है. आदिवासी सभ्यताओं में आप देखें जहाँ आधुनिकता के कोई तामझाम नहीं हैं, महिलाओं की स्थिति पुरुषों से श्रेष्ठ है. यह सिर्फ व्यक्तिगत निष्ठा और स्वतःस्फूर्त अनुशासन का परिणाम है. यदि हम साहित्य में स्त्री पात्रों का विश्लेषण करें तो हम पाएंगे की पुरुष लेखक और महिला लेखकों ने अपने अपने दृष्टिकोण के हिसाब से चरित्र गढ़े हैं. दरअसल लेखक के अपने पूर्वाग्रह कहीं न कहीं दिख ही जाते हैं. साहित्य में पात्रों के कंधे पर अपनी बन्दूक लेखक को नहीं चलानी चाहिए तात्पर्य यह है कि किसी प्रकार का आदर्श नहीं थोपा जाना चाहिए। स्थिति की वास्तविक स्थिति नज़र आनी चाहिए। फैसला पाठक पर छोड़ दिया जाना चाहिए. सबसे पहले तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि लिखने का उद्देश्य क्या है ? जैसे फिल्मे होती हैं – कला फिल्म\ कमर्शियल फिल्म। तो जब साहित्य मुनाफे के लिए लिखा जाएगा तो स्त्री को आइटम के तौर पर पेश किया जायेगा ही. …क्योंकि आज की स्त्री स्वयं को आइटम के रूप में पेश किये जाने में गौरवशाली समझती है और वह तैयार है इस गौरव को हासिल करने के लिए. रसोई में हल्दी मसालों की गंध उसे अब रास नहीं आती. लेखक का मंतव्य आज के दौर की नारी के संघर्ष को चित्रित करना होना चाहिए – स्कूल से लेकर कॉलेज तक – घर से लेकर नौकरी तक – कि वह किन रास्तों से गुजर कर परिवार और समाज को मज़बूत कर रही है. उसकी छटपटाहट और तड़प का कलमबंद बयान होना चाहिए। स्त्री हो अथवा पुरुष जब कोई अपने दायित्वों को भूल कर मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है तो समाज में विसंगतियां उत्पन्न होती ही हैं. उनकी पीढियां पथभ्रष्ट होकर दीमक की तरह समाज और राष्ट्र को खोखला करने लगती हैं. ——- Amar Lata – Lucknow – India
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